तीन भाई और पत्थर का घर

बहुत समय पहले, उत्तर प्रदेश के बिलासपुर गाँव में तीन भाई - राजेंद्र, गजेंदर, और सुरेंद्र रहते थे। तीनों भाइयों में बिलकुल भी नहीं बनती थी। उन्हें मिलजुलकर कोई भी काम करना पसंद नहीं था। जब वह छोटे थे, तब उनके पिता का निधन हो गया था। उनकी माँ खेती-बाड़ी करके घर चलाती थी। वह तीनों भी अपनी माँ की सहायता करते थे। एक दिन, उनकी माँ की तबियत ख़राब हो गयी। माँ ने अपने तीनों बेटों को बुलाया और उनसे कहा, “बच्चों, मैं अब बहुत समय तक जीवित नहीं रह पाउंगी। तुम तीनों मुझे बहुत प्रिय हो। मरने से पहले मैं बस तुम तीनों को अपने पैरों पर खड़ा देखना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि ऐसे झोपड़े में रहने की बजाय तुम्हारा एक बड़ा घर हो जिसमें तुम तीनों भाई साथ में, मिलजुलकर रहो। क्या तुम मेरी यह इच्छा पूरी करोगे?

माँ की यह बात सुनकर तीनों भाई सोच में पड़ गए। क्योंकि वह एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे, उन्हें समझ नहीं आया कि वह क्या करे?!  अपनी माँ की ख़राब स्थिति को ध्यान में रख कर गजेंदर ने बोला, “ठीक है माँ। जैसा आपने कहा, हम ठीक वैसा ही करेंगे। बस आप पहले ठीक हो जाओ।”

गजेंदर का जवाब सुनकर माँ को संतुष्टि मिल गयी लेकिन राजेंद्र और सुरेंद्र को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने घर से बाहर जाकर गजेंदर से कहा, “तुमने माँ से ऐसा क्यों कहा कि हम तीनों साथ में रहेंगे?” इसपर गजेंदर ने जवाब दिया, “तुम दोनों कैसी बातें कर रहे हो? और इतना सोचने की ज़रुरत नहीं है। माँ को बस ठीक होने दो। इस बारे में हम फिर कभी बात कर लेंगे। मुझे भी कोई शौक नहीं है तुम दोनों के साथ सरखपाई करने का।”

तीनों भाइयों ने अपनी माँ के जल्दी से ठीक होने की प्रार्थना की। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद, उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। माँ की मृत्यु के बाद तीनों भाई सोच में पड़ गए कि वह करें तो करें क्या?  गजेंदर ने माँ से कही हुई बात याद की। वह अपने भाइयों के पास गया और उनसे कहा, “भाइयों - मैं कुछ सोच रहा हूँ - क्यों ना हम तीनों साथ मिल कर कुछ काम करें - जैसा माँ चाहती थी?”



यह सुनकर सुरेंद्र गुस्से में बोला, “सोचना भी मत। मैं ना तो तुम्हारे साथ, और ना ही राजेंद्र के साथ कोई काम करूँगा। माँ बस चाहती थी कि हम तीनों काबिल बने और अपने लिए एक बड़ा सा घर बनाये।” अगले दिन, तीनों भाई ने अपनी सारी जमा-पूँजी को तीन हिस्सों में विभाजित किया और अपनी-अपनी राह चल दिए। तीनों भाइयों के पास अब अपनी जमा पूँजी को समझदारी से खर्च करके घर बनाने की चुनौती थी।

राजेंद्र ने सोचा, “मैं अपना घर बाँस और भूसे का बनाऊंगा। यह मेरे लिए काफी किफायती रहेगा। ऐसे मेरा घर भी जल्दी बन जाएगा और बचे हुए पैसे से मैं ज़रुरत का सारा सामान ख़रीद लूँगा। दूसरी तरफ, सुरेंद्र ने भी घर बनाने के बारे में विचार किया, “मैं अपना घर लकड़ियों का बनाऊंगा। लकड़ियों से बना हुआ घर ठंडा रहेगा और मैं आराम से सो पाउँगा। और तो और - बचे हुए पैसों से में अपने लिए आरामदायक गद्दे भी ले लूँगा।”

ऐसा सोचते हुए सुरेंद्र लक्कड़हारे के पास गया और अपना घर बनाने के लिए लकड़ियां खरीदने लगा। तीसरा भाई गजेंदर ने एक मजबूत घर बनाने के बारे में सोचा। उसने अपनी सारी पूँजी लाल पत्थर और चावल के आटे को खरीदने में लगा दी। फिर उसके पास बाकी सामान खरीदने के लिए पैसे ही नहीं बचे। गजेंदर ने हिम्मत नहीं हारी और खेती बाड़ी करके पैसे जोड़ने लगा।

कुछ समय के बाद, कड़े परिश्रम से गजेंदर ने अपना घर बनाने का सारा सामान इक्कठा कर लिया और अपना घर बनाना शुरू कर दिया। इसी बीच, सुरेंद्र और राजेंद्र ने अपना-अपना घर बनाकर तैयार कर लिया। कुछ महीनों के बाद, गजेंदर का घर भी तैयार हो गया था। वह बहुत खुश था। तीनों भाई अपने-अपने घरों में शांति से रह रहे थे।

एक दिन, बहुत तेज़ तूफ़ान आया। तूफ़ान आने की वजह से राजेंद्र का बाँस और भूसे का घर - और सुरेंद्र का लड़कियों का घर तहस-नहस हो गया। वह दोनों भागे-भागे गजेंदर के घर पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने देखा कि गजेंदर का घर वैसे का वैसा ही था। गजेंदर अपने भाइयों को देख कर खुश हो गया और उनसे कहा, “ऐसे बारिश में बाहर ही खड़े रहोगे या अंदर भी आओगे?” यह सुनकर राजेंद्र और सुरेंद्र घर के अंदर आ गए। उन्हें अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी हो रही थी। तभी राजेंद्र ने कहा, “हमें माफ़ कर दो भाई। हम ने अपने लिए घर तो बना लिया - लेकिन यह भूल गए कि नींव मजबूत रखना बहुत ज़रूरी होता है।”  इसपर गजेंदर ने कहा, “ आखिर मदद की घड़ी में अपने ही तो अपनों के काम आते है। और तुम तो मेरे भाई हो। माँ भी हमेशा यही चाहती थी कि हम ज़रुरत के समय एक दूसरे की मदद करें।

उस दिन के बाद से, वह तीनों भाई ख़ुशी-ख़ुशी एक साथ गजेंदर के घर में रहने लगे और मिलकर काम करने लगे।

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