बहुत पुरानी बात है, किसी नगर में एक जुलाहा रहता था। वह दिन-रात कपड़े बुनकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। एक दिन जब वह कपड़े बुन रहा था, तभी उसके सभी उपकरण टूट गए। उन उपकरणों की मरम्मत के लिए उसे नयी लकड़ियों की आवश्यकता थी। वह लकड़ियाँ लेने जंगल में गया और एक वृक्ष को देखकर रुक गया। उस वृक्ष की लकड़ियाँ उपकरणों के लिये बिलकुल उपयुक्त थी। जैसे ही उसने लकड़ियाँ काटने के लिए अपनी कुल्हाड़ी उठायी, उसे किसी की आवाज़ सुनाई दी।
उस आवाज़ को सुनकर वह रुक गया। परन्तु दूर-दूर तक उसे कोई नजर नहीं आया। जब वह पुनः लकड़ी काटने के लिए तत्पर हुआ, तभी वृक्ष से एक देव प्रकट हुए और जुलाहे से कहा - “मैं इस वृक्ष का देव हूँ। मैं सालों से इस वृक्ष पर आराम करता आया हूँ। तुम इसे क्यों काटना चाहते हो?" यह सुनकर जुलाहे ने जवाब दिया - “हे देव ! मैं एक जुलाहा हूँ और मेरे उपकरणों की मरम्मत के लिए इस वृक्ष कि लकड़ियाँ बिलकुल उपयुक्त है।"
यह सुनकर देव कहते हैं - “इस वृक्ष को मत काटो। तुम जो चाहो वरदान माँग सकते हो।” वरदान की बात सुनकर वह अपनी पत्नी के साथ विचार-विमर्श करने के लिए देव से एक दिन का समय मांगता है। देव से एक दिन का समय लेकर जुलाहा वापस अपने नगर आ जाता है। वह अपनी पत्नी को सारे घटनाक्रम को विस्तार से बताकर पूछता है कि उसे वरदान में क्या माँगना चाहिये?
उसकी पत्नी कहती है कि उसे दो हाथ और और दो सर माँग लेने चाहिये। जितने ज्यादा हाथ रहेंगे तुम उतने ज्यादा कपड़े बुन सकोगे। अगले दिन वह देव से दो हाथ और दो सर माँगता है। देव उसे दो हाथ और दो सर का वरदान देकर अन्तरध्यान हो जाते हैं। दो सर और चार हाथ हो जाने पर वह बहुत खुश होता है और अपने नगर की ओर चल देता है। नगरवासी जब उसे देखते है तो डर जाते है और उसे दो सर और चार हाथ वाला राक्षस समझकर उसकी खूब पिटायी करते हैं।
सारांश - हमें कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अच्छे से विचार कर लेना चाहिये।
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